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बुधवार, जून 01, 2016

अतीत के वो दिन

जून का तपता रेगिस्तान



आज जून के महीने की पहली तारीख है। यह महीना किसी रूठे हुए सनम की तरह मेरे लिए हमेशा ही बेदर्द रहा है। जून के इसी तपती गरमी में कमबख़्त मैं पैदा हुआ। साल का यही वो मौसम है जब किसी और मौसम के मुकाबिल मैंने खुद को बड़ा होते देखा और इसी मौसम में खुद को किसी मोम की तरह पिघलते हुए पाया। न जाने कितने दर्द... कितने गम दिए हैं इस महीने ने, जिसकी उमर इस मौसम से कई सालों लंबा रहा है।


....और आज एक बार फिर जून के इसी मौसम ने खुशियों का वह तकिया भी छीन लिया हमसे, जिस पर सर रखकर कभी रो लिया करते थे। अब तो बस्स्स... गम का बिछौना है और दूर तक फैली रेतीली, लंबी, उदास दिन-रातों का सिलसिला... ना जाने कितने दिन, महीने और बरसों तक यूं ही रहने वाला है....


....अतीत की साख से गिरे पत्ते...किसी पौधे की तरह हमारी सांसों में...हमारे दिल में फिर से उग जाया करती हैं और कटीली झाड़ियां बनकर सारी जिन्दगी दर्द का अहसास देती हैं....जिसे चाहकर भी हम ता-उमर कभी भूल नहीं सकते... 

मंगलवार, जून 19, 2012

                                 एक पंक्षी रति पीड़ा में .....


...और प्याला छलक उठा...एक मरघट सी शांति...उदासी...पीड़ा...रति क्रीड़ा....

साभार-गुगल

" मेरे ओंठ भींगे हैं, दागदार हैं
    और मैं

   अपने बिस्तरे की गहराई में, अंधेरे में
   अपना परम्परागत पुरातन संस्कार
   गर्क कर लेने की अदा सीख चुका हूं...!!  ,,

मंगलवार, मार्च 13, 2012

मेरी यादों में नेपाल....

यह मार्च का महीना है...मेरे बसंत का मौसम..आज से एक साल पहले उनसे मुलाकात हुई थी... 
       
                                                       नेपाल की तराई में..एक छोटा सा गांव है- राजगढ़-6..भारत से दार्जलिंग होते हुए आखिरी सीमा आती है मेची कोली (नदी)..जो भारत और नेपाल की आधिकारिक सीमा रेखा है..वहां से बिर्ता मोड़ बाजार और फिर वहां से राजगढ़ गांव..नेपाल का यह गांव भारत के गांवों की तरह ही धूल-धक्कर से भरा हुआ है..आबादी के लिहाज से काफी छोटा है..एक छोटा सा बाजार है, जिसके चारों ओर लोगों के घर-बार हैं...थोड़ा-थोड़ा हट कर..जैसा आमतौर पर गांवों में होता है..वहीं बाजार क पास ही मेरे दोस्त का घर है..जिसके विवाह में मैं भारत से नेपाल गया था..भारत शब्द बार-बार सलिए याद आते हैं कि वहां के लोग मझे इंडियन बुलाते थे..जिंदगी में पहली बार अहसास हुआ कि विदेश में हूं..कभी –कभी अच्छा लगता था..लेकिन फिर बुरा लगने लगा..नेपाल और भारत में मैनें कभी कोई अंतर नहीं देखा था, अगर संप्रभुता की बात छोड़ दी जाय तो...कारण, नेपाल की सीमा से सटे इलाके में मैनें जिन्दगी तके कई बरस गुजारे हैं..लेकिन उत्तर-पूर्व का यह तराई इलाका वाकई में मेरे लिए एक अनदेखा जीवन रहा..
                                               
                                      ..जहां मेरे दोस्त का घर है..वहीं उसके पीछे से संकड़ी गली गुजरती है..उसके बाईं तरफ एक स्कूल है और दांयी तरफ दो कदम की दूरी पर एक छोटा-सा काठ का घर है..बिलकुल किसी चित्रकार के चित्र की भांति वो घर आज भी मेरी स्मृतियों में यूं ही जमी हुई है..स्टील फ्रेम...लेकिन यह स्टील फ्रेम तब टूट जाती है जब सुबह-सुबह एक खूबसूरत सी नहायी हुई लड़की अपने गीले बालों को तौलिये में लपेटे हुए दरवाजे से बाहर निकलती है..अंगराई लेती है..बाल झटकती है..और एक आराम कुर्सी में धंस जाती है...अपने हाथों को कुर्सी के पाये से टिका कर सर को इस तरफ घुमाती है...धूप की मिठी सी रौशनी फैल जाती है उसके चेहरे पर...उसकी बड़ी-बड़ी सी आंखें हवा में स्थिर हैं,...शायद सुबह का आलस है,..उसकी कमानीदार भंवे उपर उठती हैं और मुझे देखती हैं..आंखों में चंचलता तैर जाती है...धूप में नहाया हुआ उसका होठ..कितने गुलाबी हैं..उसके होठ फैल गये हैं..मुस्कुरा रही है..होठों के उपर से लेकर पुरे गाल पर, कान के नीचे तक हल्की-हल्की भूरे बालों की रवें दिख रही है..जाने क्यूं इतनी सुबह-सुबह एक मीठा पाप करने की इच्छा हो रही है...

                                      ...इच्छा...इच्छाएं...शायद कभी मरती नहीं हैं...और मुझे लगता है, यह देश, समाज, दुनिया से उपर की चीज है..तभी तो नेपाल के इस गांव में भी मेरी इच्छा मरी नहीं है, जाग रही है...और मैं इस पागल लड़की जिसका नाम मनीषा खरेल है, के घर के सामने वाले अपने दोस्त के घर की छत की मुंडेर पर बैठा हुआ सोच रहा हूं...इन इच्छाओं का क्या करुं....
                                     
..सुबह-सुबह दार्जलिंग के बगान की चाय पीती हुई यह अल्हड़ लड़की.. बड़ी पागल है..पागल...नहीं..नहीं..वो पागल
नहीं है..वह दूलरों को पागल बनाना जानती है...जाने क्यूं मुस्कुराये जा रही है....कल तो कह रही थी, मुझे इंडिया बहोत अच्चा लगता है...उसे हिन्दी नहीं आती है..लेकिन समझ जाती है..नेपाल के सभी घरों की तरह यह लड़की भी अपने टीवी चैनलों पर सारे हिन्दी कार्यक्रम देखती है...और कभी-कभी हिन्दी भी गाती है, मुझे चिढ़ाने के लिए..नजरें उठाकर..आंखों को गोल-गोल घुमाकर गाती है, पल ना माने टिंकू जिया.........फिर मुस्कुराने लगती है..खिलखिलाने लगती है...और बच्चों की तरह मासूम बनकर कहती है,हम इंडिया जाएगा..आप ले जाएगा..और फिर अपनी टूटी-फूटी हिन्दी पर हंस पड़ती है...फिर उसे कुछ कहने होता है, कहती है...लेकिन हिंदी में नहीं कह पाती है...नेपाली में बोलती है..और फिर यह देखकर कि मै नेपाली नहीं समझ रहा हूं...जोर-जोर से खिलखिलाने लगती है...

                                      ......जाने क्यूं, वह अल्हड़-पागल लड़की इतने दिनों बाद बहुत याद आ रही है...नेपाल से आती हुई बहती हवा आज भी उसकी मासूम हंसी की खिलखिलाहट अपने साथ ला रही है...नेपाल की उंची पहाड़ों से उपर उठता हुआ नेपाल का मादक दमाई संगीत..नेपाल की नदियां..नेपाल के घरों में बनने वाला बीयर...नेपाल के लोग...नेपाल की औरतें...नेपाल की मनीषा खरेल.......उफ्फ....यादें क्यूं आती है बार बार, मुझे रुलाने के लिए...............क्रमश :
                                               

मंगलवार, अगस्त 02, 2011

आईने अकेले हैं....

                                                          
                 नेपाल के तराई में रहने वाली यह लड़की मनीषा बेहद खूबसूरत और अल्हड़ है..इसे चोकलेट बेहद पसंद है...चोकलेट खाते हुए इसे इस बात का होश नहीं होता की कब वह उँगलियाँ चाटने लगी है....मै उसकी इस अल्हड़ता पर मुस्करा देता हूँ तो वह झट से उँगलियाँ अपने होठों से हटा लेती है, शरारत भरी नजरों से मुझे तकती है, आँखों को गोल-गोल घुमती हुई एक सस्ता सा हिंदी गाना गाने लगती है--पल पल ना माने टिंकू जिया...

                                                                                                                 नेपाल के तराई में रहने वाली यह लड़की मनीषा खरेल  मुझे देखकर हिंदी गाना गाने लगती...लेकिन इसे हिंदी नहीं आती..आता है तो दिल जलाने की अदा..इस लड़की की बड़ी- बड़ी आँखों में मचलता हुआ एक झील है, बिल्कुल उसी की तरह चंचल और अल्हड़..यह झील कहीं ठहरती नहीं...बहती चली जा रही है...
                                                                                                           ....क्या पता था की इस झील में बरसात का पानी बहुत जोर का बहाव लाने वाला है जो एक रोज़ मुझे दूर..बहुत दूर  ले जाएगा...जहाँ तपती हुई  रेत और यातनाओं के सिवा कुछ नहीं होगा....कुछ भी तो नहीं....अब यादों की छलनी में कुछ बाकी नहीं है....

ज़िन्दगी एक सुलगती चिता सी है
शोला बनती है ना बुझकर के धुआं होती है........ 

सोमवार, जून 20, 2011

नमन उनको

 नमन उनको !


मिथिला के  बिहार प्रान्त दरभंगा में लदारी गाम  के स्वरुपम कुमार झा  1995 में दीक्षा प्राप्त कर  बन गए  स्वामी निग्मानंद.

34 वर्षीय  स्वामी 19 फरवरी , 2011 से  निरंतर रूप से पवित्र गंगा के  अस्तित्व  बचाने के लिए आमरण अनशन पर बैठे रहे . ३ महीने के  कठोर अनशन के बाद आख़िरकार काल की कोख में लीन हो गए...

रविवार, सितंबर 05, 2010

एक अंतहीन यात्रा.....


बहुत पुरानी चीनी कहावत है, "दस हज़ार किताबों को पढने से बेहतर , दस हज़ार मील की यात्रा करना है "I

                                                             रात के 10 :30 हो चुके है और मै अपनी खिड़की में बैठा , दूर-सुदूर तक फैले हुए खेतों को देख रहा हूँ...बाहर घुप्प अँधेरा है...और शायद भीतर भी...आकाश में काले बादल छाए हुए हैं...हवा तेज़ और ठंडी मालूम पड़ती है...और इस घुप्प अँधेरे के बीच रह - रह कर जब बिजली चमकती है तो दूर तक खेतों के निशान दिख जाते हैं.....

                                                                 खेत की फसलें काटी जा चुकी हैं और परती ज़मीन, किसी विधवा के सूनी मांगों की तरह उजाड़ लग रही है..... सुनसान खेतों में खड़े विशालकाय पेड़ों के झुंड , बांसों के झुरमुट , किसी मौनव्रत सन्यासी की तरह चीर मुद्रा में लट बिखराए हुए पीछे की ऑर भाग रहे हैं ...जैसे, किसी अघोषित यातना की सज़ा मिली हों उन्हें, ताउम्र भागते - भटकते रहने की सजा... !!

                                                                 रेल की रफ़्तार धीमी हो रही है...कुछ यात्री ' कम्पार्टमेंट ' में  इधर - उधर टहल रहे हैं...बाकी यात्रियों के चेहरे एक से लग रहे हैं.....ऊंघते हुए.... लेकिन  मै अपनी खिड़की में बैठा हुआ हूँ  , और मेरी नज़रें खिड़की से दूर....बहूत दूर शायद   कुछ तलाश कर जाही हैं....क्या तलाश कर रही है..???
                                         
                                                                ......शायद कोई 'स्टेशन ' आने वाला है...गाडी बहुत धीमी हो चुकी है...रूठ जाने के अंदाज़ में.....ऑर पास ही 'आउटर सिग्नल' पर, फाटक के दूसरी तरफ कुछ लोग मूर्तिवत खड़े हैं,....देखने पर कुछ स्पष्ट नहीं दिख रहा...किसी इंतज़ार में खड़ी कुछ मनुष्य छायाएं मात्र, बिजली कौंधने पर दिख जा रही हैं .....शायद, इन्हें उस पार जाना है....

                                                                ...ऑर इस पार ....जिधर से ये लोग आ रहे हैं, कश्बे का कोई बाज़ार लगा हुआ है....कतार में लगे बल्बों का झुंड, यहाँ - वहां पीली - पीली रौशनी फेंक रहा है....नर मुंडों की भीड़ कम होती जा रही है....कुछ अपने दुकानों को समेटने में लगे हुए हैं....ऑर बाज़ार से वापस लौटती हुई, ये छायाएं मशीनी ज़िन्दगी ज़ीने के बाद , इस फाटक पर आकर मूर्तिवत खड़ी हो गई हैं....ठहर गई हैं...

                                                                 शायद, यह एक कटु सत्य है , जिसे हम मनुष्यों में सबसे ज्यादा देख ऑर समझ सकते हैं...सारी ज़िन्दगी हम चाहे कितना क्यूँ ना भागें, लेकिन एक उम्र के बाद हम ठहर से जाते हैं....निर्मल वर्मा ने भी कहीं लिखा है..."जब हम जवान होते हैं, हम समय के खिलाफ भागते हैं, लेकिन ज्यों - ज्यों बूढ़े होते जाते हैं, हम ठहर जाते हैं, समय भी ठहर जाता है, सिर्फ मृत्यु भागती है, हमारी तरफ I"

                                                               ...ऑर उस पार....जिधर इन्हें जाना है, चारों तरफ घना अँधेरा है...ऑर उस अँधेरे के बीच से गुज़रती हुई , कच्चे सड़क की एक संकड़ी पगडण्डी , जो सुदूर खेतों तक आरी - तिरछी जा कर, कहीं गुम हो गई हैं....बिजली कौंधने पर ये पगडण्डी, किसी विशालकाय अजगर की भाँती दिखता मालूम हो रहा है....

                                                               ...सोचता हूँ , कितनी अजीब बात है...एक तरफ बाज़ार है, जहाँ से पक्की सड़कें गुज़र रही हैं....शहर की सुविधाएं मौजूद हैं ...तो दूसरी तरफ एक कच्ची पगडण्डी .....जिनसे होकर लोग वापस अपने घरों की ओर लौट रहे हैं.....

                                                               ....सोचता हूँ, आखिर ऐसा क्यों होता है,. की ज़िन्दगी भर भागते रहने के पश्चात, एक समय के बाद, हम वापस अपने जड़ों की ओर लौटने लगते हैं....???

                                                                 ....बारिश की हल्की - हल्की बूँदें गिरने लगी हैं. और तेज़ हवाओं के साथ चेहरे पर बिखर रही हैं.....आहा! कितना शीतल एहसास...

                                                                  ....इस एहसास के साथ ही , अँधेरे से निकलता हुआ कोई चेहरा, धीरे - धीरे दिल की गहराइयों में उतरने लगा है...और मै , अपने हाथों में " गुनाहों का देवता " लिए, पन्ने पलट रहा हूँ ...इन पन्नों से, वो बाहर निकल आई है.....मुस्कुरा रही है...और मुस्कुराती ही रहेगी ....मुस्कुराना आदत है उसकी...नहीं - नहीं , मुस्कुराना पेशा है उसका....रिसेप्सनिस्ट है वो...यहीं से मुस्कुराने की बुरी आदत लगी है उसको ....मै जब उससे कहूँगा , " पालक, तुम इतना मुस्कुराती क्यूँ हो?? " मेरी ओर देखेगी, फिर मुस्कुराएगी और किसी बच्चे की तरह इठलाते हुए, प्यार भरे गुस्से से बोलेगी , " मेरा नाम पलक है, पालक नहीं " और फिर मुस्कुराने लगेगी ...

                                                                  ....वह ऊंचे 'हील' की सेंडल पहनती है, और उसके पास एक बड़ा - सा 'स्टाइलिश' बैग है... लोग कहते हैं, उस बैग में वो अपने आशिकों को छुपा कर रखती है....मै जब पूछता हूँ उससे की, " तुम मुझे इस बैग में क्यों नहीं छुपाती हो " वह फिर मुस्कुराती है...,और मझसे कहती है., " तुम मेरे आशिक नहीं हो, तुम पागल हो...पागल ..." और जोर से खिलखिलाकर हंसने लगती है , इतनी जोर से की आस - पास के सारे लोग हमे देखने लगते है....उसे इस बात का ज़रा भी ख्याल नहीं रहता....कोई उसे देख रहा है, या कई लोग उसे देख रहे है....लेकिन वह हँसेगी , और हंसती ही रहेगी .... वह जब ऐसे हंसती है तो आस - पास के कई लोग डर जाते हैं....जैसे, कभी ' भूखी पीढ़ी ' के लोग डर जाया करते थे....लेकिन मै डरता नहीं हूँ......उसके ऊपर लॉर्ड बायरन की तरह एक कविता लिखना चाहता हूँ ...

"" सितारों भरी चांदनी रात की तरह

सुन्दर है वह

उसका चेहरा और आँखें उसकी

संगम हैं धुप - छावं का

ऐसी कोमलता है इस प्रकाश में

नहीं मील सकती जो दोपहरी के आकाश में....""

                                                                           चलती हुई रेल के सफ़र में  आँखें बंद कर सोना भी एक कला है शायद....मै इस कला में माहिर नहीं हूँ ....लेकिन, नक़ल तो कर ही सकता हूँ.....
                                                                                                         ....................रा. रं . दरवेश

शनिवार, अगस्त 28, 2010

" मुक्ति प्रसंग "

..........

क्यूँ यह इक्षा होती है बार- बार
विभक्त हो जाऊ सैकड़ों टुकड़ों में
और एक ही समय , एक ही संग मौजूद रहूँ सैकड़ों देह के साथ
---जैसे कृष्ण ने किया कभी
काफ्का ने इक्षा की थी कभी....

क्या यह संभव है ?
या
"मुक्ति" अब भी एक संभावना है.......... रा. रं. दरवेश

शुक्रवार, जुलाई 23, 2010

गर्दिश के दिन

यादों के जंगल में अब जुगनुओं ने भी आना छोड़ दिया है ....

.....काफी दिनों बाद , कल की शाम एक बार फिर
                                      ...कोक वोदका के साथ ......